दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं
दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं
आशिक़ी हो कि बंदगी ‘फ़ाख़िर’
बे-दिली से तो इब्तिदा न करो
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
तुम से कहीं मिला हूँ मुझे याद कीजिए
कौन जाने कि इक तबस्सुम से
कितने मफ़्हूम-ए-ग़म निकलते हैं
देखने वालो तबस्सुम को करम मत समझो
उन्हें तो देखने वालों पे हँसी आती है
अब न आएँगे रूठने वाले
दीदा-ए-अश्क-बार चुप हो जा
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