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Wednesday, December 12, 2018 8:52 PM

Rabindranath Tagore Yah kaun virahanee aatee

यह कौन विरहणी आती

यह कौन विरहणी आती !
केशों को कुछ छितराती ।
वह म्लान नयन दर्शाती ।।
लो आती वह निशि-भोर ।
देती है मुझे झिंझोर ।।
वह चौंका मुझको जाती ।
प्रातः सपनों में आती।
वह मदिर मधुर शयनों में,
कैसी मिठास भर जाती ।।
वह यहाँ कुसुम-कानन में,
है सौंप वासना जाती ।। 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Jis path par tumane thee likhee charan rekha

जिस पथ पर तुमने थी लिखी चरण रेखा

जिस पथ पर तुमने थी लिखी चरण रेखा
उसको ख़ुद मिटा दिया आज ।।
जिस पथ पर बिछे कहीं फूल थे अशोक के,
उनको भी घास तले दबे आज देखा ।।
खिलना भी फूलों का होता है शेष
पाखी भी और नहीं फिर से गाता ।
दखिन पवन हो उदास
यों ही बह जाता ।।
तो भी क्या अमृत ही उनमें न छलका—
मरण-पार सब होगा बस बीते कल का ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Kisalay ne paaya kya usaka sandesh

किसलय ने पाया क्या उसका संदेश 

किसलय ने पाया क्या उसका संदेश ।
दूर-दूर सुर गूँजा किसका ये आज ।।
कैसी ये लय ।
गगन गगन होती है किसकी ये जय ।।
चम्पा की कलियों की शिखा जहाँ जलती,
झिल्ली-झंकार जहाँ उठती सुरमय ।।
आओ कवि, बंशी लो, पहनो ये माल,
गान-गान हो ले विनिमय ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Jo gae unhen jaane do

जो गए उन्हें जाने दो

जो गए उन्हें जाने दो
तुम जाना ना, मत जाना.
बाकी है तुमको अब भी
वर्षा का गान सुनाना.
हैं बंद द्वार घर-घर के, अँधियारा रात का छाया
वन के अंचल में चंचल, है पवन चला अकुलाया.
बुझ गए दीप, बुझने दो, तुम अपना हाथ बढ़ाना,
वह परस तनिक रख जाना.
जब गान सुनाऊं अपना, तुम उससे ताल मिलाना.
हाथों के कंकन अपने उस सुर में जरा बिठाना.
सरिता के छल-छल जल में, ज्यों झर-झर झरती वर्षा,
तुम वैसे उन्हें बजाना.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Sunday, December 9, 2018 1:00 PM

Rabindranath Tagore Kholo yah timir-dvaar

खोलो यह तिमिर-द्वार

खोलो यह तिमिर द्वार रखतीं नीरव चरण आओ ।
ओ ! जननी सनमुख हो, अरुण अरुण किरणों में आओ ।।
पुण्य परस से पुलकित आलस सब भागे ।
बजे गगन में वीणा जगती यह जागे ।।
जीवन हो तृप्त मिले सुधा-रस तुम्हारा ।
जननी ओ ! हो सनमुख, ज्योति चकित नयनों में
आओ, समाओ ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Man ke mandir mein likhana sakhi

मन के मंदिर में लिखना सखी

मन के मंदिर में लिखना सखी
नाम लिखना मेरा प्रेम से ।
मेरे प्राणों के ही गीत से,
सुर वो नूपुर का लेना मिला ।।
मेरा पाखी मुखर है बहुत
घेर रखना महल में उसे
धागा ले के मेरे हाथ का
एक बंधन बनाना सखी,
जोड़ सोने के कंगन इसे ।।
मेरी यादों के रंगों से तुम
एक टिकुली लगाना सखी,
अपने माथे के चंदन पे, हाँ !
मोही मन की मेरी माधुरी,
अपने अंगों पे मलना सखी,
अपना सौरभ भी देना मिला ।।
मरन-जीना मेरा लूटकर
अपने वैभव में लेना समा ।
मुझको लेना उसी में छिपा ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore He naveena

हे नवीना

हे नवीना,
प्रतिदिन के पथ की ये धूल
उसमें ही छिप जाती ना !
उठूँ अरे, जागूँ जब देखूँ ये बस,
स्वर्णिम-से मेघ वहीं तुम भी हो ना ।।
स्वप्नों में आती हो, कौतुक जगाती ।
किन अलका फूलों को केशों सजाती 
किस सुर में कैसी बजाती ये बीना ।। 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Yadi nahin cheenh main paoon, kya cheenh mujhe vah lega

यदि नहीं चीन्ह मैं पाऊँ, क्या चीन्ह मुझे वह लेगा 

यदि नहीं चीन्ह मैं पाऊँ, क्या चीन्ह मुझे वह लेगा ।
इस नव फागुन की बेला, यह नहीं जानती हूँ मैं ।।
निज गान कली में मेरी, वह आकर क्या भर देगा,
यह कहाँ जानती हूँ मैं ।। इन प्राणों को हर लेगा ।

क्या अपने ही रंगों में, वह फूल सभी रंग देगा,
क्या अंतर में आ करके वह नींद चुरा ही लेगा,
क्या गःऊँघट नव पत्तों का, कर जाएगा वह चंचल,
मेरे अंतर की गोपन वह बात जान ही लेगा—
यह कहाँ जानती हूँ मैं ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Rakho mat andhere mein do mujhe nirakhane

रखो मत अँधेरे में दो मुझे निरखने


रखो मत अँधेरे में दो मुझे निरखने ।
तुममें समाई लगती हूँ कैसी, दो यह निरखने ।
चाहो तो मुझको रुलाओ इस बार, सहा नहीं जाता अब
दुःख मिला सुख का यह भार ।।
धुलें नयन अँसुवन की धार, मुझे दो निरखने ।।
कैसी यह काली-सी छाया, कर देती घनीभूत माया ।
जमा हुआ सपनों का भार, खोज खोज जाती मैं हार—
मेरा आलोक छिपा कहीं निशा पार,
मुझे दो निरखने ।। 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Mainne paaya use baar-baar

मैंने पाया उसे बार-बार


मैंने पाया उसे बार-बार ।

उस अचीन्हे को चीन्हे में चीन्हा ।।
जिसे देखा उसी में कहीं
वंशी बजती अदेखे की ही ।।
जो है मन के बहुत पास में,
चल पड़ा उसके अभिसार में ।।
कैसे चुप-चुप रहा है वो खेल,
रूप कितने ही धारे अरूप ।।
दूर से उठ रहा किसका सुर,
कानों कानों कथा कह मधुर ।।
आँखों आँखों का वो देखना,
लिए जाता मुझे किस पार !!



–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Friday, December 7, 2018 6:19 PM

Rabindranath Tagore Poem Aaj baadal-gagan, godhoolee-lagan

आज बादल-गगन, गोधूली-लगन

आज बादल-गगन, गोधूली-लगन

आई उसके ही चरणों की ध्वनि ।
कह रहा मन यही आज 'आएगा वह',
यही कहता है मन हर पल ।।
आँखों छाई ख़ुशी, हैं उठीं वे पुलक,
उनमें भर आया देखो ये जल ।।
लाया लाया पवन, उसका कैसा परस,
उड़ता-उड़ता दिखा उत्तरीय ।
मन है कहता यही, कहती रजनीगंधा,
आज 'आएगा वह', निर्मल ।।
हुई आकुल बड़ी मालती की लता,
हुई पूरी नहीं उसके मन की कथा ।।
बतकही जाने बन में ये कैसी चली,
आज किसकी मिली है ख़बर ।
दिग्वधुओं के आँचल में कंपन हुआ,
कह रहा मन यही, आज 'आएगा वह'
आज उसकी ही है हलचल ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Ravindranath Tagore Kisaka aaghaat hua phir mere dvaar

किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार 


किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार ।
कौन, कौन इस निशीथ खोज रहा है किसको—
आज बार-बार ।।
बीत गए कितने दिन,
आया था वह अतिथि नवीन,
दिन था वह वासन्ती—
जीवन कर गया मगन
पुलक भरी तन-मन में—
फिर हुआ विलीन ।।
झर-झर-झर झरती बरसात ।
छाया है तिमिर आज रात ।।
अतिथि वह अजाना है
लगते पर बड़े मधुर,
उसके सब गीत-सुर ।।
सोच रहा जाऊँगा मैं उसके साथ—
अनजाने इस असीम अंधकार ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Aaj jaagee kyon marmar-dhvani

आज जागी क्यों मर्मर-ध्वनि !

आज जागी क्यों मर्मर-ध्वनि !
पल्लव पल्लव में मेरे हिल्लोल,
हुआ घर-घर अरे कंपन ।।
कौन आया ये द्वारे भिखारी,
माँग उसने लिए मन-धन ।।
जाने उसको मेरा यह हृदय,
उसके गानों से फूटें कुसुम ।
आज अंतर में बजती मेरे,
उस पथिक की-सी बजती है ध्वनि ।।
नींद टूटी, चकित चितवन । 


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Paravaasee, aa jao ghar

परवासी, आ जाओ घर

परवासी, आ जाओ घर
नैय्या को मोड़ लो इधर ।।
देखो तो कितनी ही बार
नौका है नाविक की हुई आर-पार ।।
मांझी के गीत उठे अंबर पुकार ।
गगन गगन आयोजन
पवन पवन आमंत्रण ।।
मिला नहीं उत्तर पर,
मन ने हैं खोले ना द्वार ।।
हुए तभी गृहत्यागी,
निर्वासित कर डाले अंतर-बाहर ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Sone ke pinjare mein nahin rahe din

सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन 

सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन ।
रंग-रंग के मेरे वे दिन ।।
सह न सके हँसी-रुदन ना कोई बँधन ।
थी मुझको आशा— सीखेंगे वो प्राणों की भाषा ।।
उड़ वे तो गए कही नही सकल कथा ।
कितने ही रंगों के मेरे वे दिन ।।
देखूँ ये सपना टूटा जो पिंजरा वे उसको घेर ।
घूम रहे हैं लो चारों ओर ।
रंग भरे मेरे वे दिन ।
इतनी जो वेदना हुई क्या वृथा !
क्या हैं वे सब छाया-पाखि !
कुछ भी ना हुआ वहाँ क्या नभ के पार,
कुछ भी वहन !!


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Bah rahee aanandadhaara bhuvan mein

बह रही आनन्दधारा भुवन में,

बह रही आनन्दधारा भुवन में,
रात-दिन अमृत छलकता गगन में ।।
दान करते रवि-शशि भर अंजुरी,
ज्योति जलती नित्य जीवन-किरण में ।।

क्यों भला फिर सिमट अपने आप में
बंद यों बैठे किसी परिताप में ।।
क्षुद्र दुःख सब तुच्छ, बंदी क्यों बनें,
प्रेम में ही हों हृदय अपने सने ।।
हृदय को बस प्रेम की रस-धार दो ।
दिशाओं में उसे ख़ूब प्रसार दो ।।


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Bajo, re banshee, bajo

बाजो रे बाँशरि, बाजो ।

बजो, रे बंशी, बजो ।
सुंदरी, चंदनमाला में, अरे मंगल संध्या में सजो ।
लगे यह मधु-फागुन के मास, पांथ वह आता है चंचल—
अरे वह मधुकर कंपित फूल नहीं आया आँगन में खिल ।
लिए रक्तिम अंशुक माथे, हाथ में कंकण किंशुक के,
मंजरी से झंकृत पदचाप, गंध यह मंथर बिखराती,
गीत वंदन के तुम गाकर, कुंज में गुंजन बनकर सजो ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore chup chup rahana sakhee

चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,


चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,
काँटा वो प्रेम का—
छाती में बींध उसे रखना ।
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं
अब तक उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे, जिसकी सब बींधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !!

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Vipul tarang re, vipul tarang re

विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे!


उद्वेलित हुआ गगन, मगन हुए गत आगत
उज्ज्वल आलोक में झूमा जीवन चंचल ।
कैसी तरंग रे !
दोलित दिनकर — तारे — चंद्र रे !
काँपी फिर चमक उठी चेतना,
नाचे आकुल चंचल नाचे कुल ये जगत,
कूजे हृदय विहंग ।
विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे !! 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Rabindranath Tagore Path ka vah bandhu

पथ का वह बंधु

पथ का वह बंधु
गंध लिए कुसुमों की
पथ का वह बंधु
उसका आलोक अरे

बंधु वही तेरा है बंधु वही तो ।
कहे मधु खोजो मधु वही तो ।।
बंधु वही तो ।
उसका अंधियार 
अभी-अभी यहीं और अभी नहीं वो ।।
बंधु वही तो !

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–