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Friday, November 30, 2018 11:57 PM

Rahat Indori Shayari Jaagane kee bhee, jagaane kee bhee, aadat ho jae

जागने की भी, जगाने की भी, आदत हो जाए
काश तुझको किसी शायर से मोहब्बत हो जाए

Rahat Indori Shayar Raah ke patthar se badh ke, kuch nahin hain manjilen

राह के पत्थर से बढ के, कुछ नहीं हैं मंजिलें
रास्ते आवाज़ देते हैं, सफ़र जारी रखो

Rahat Indori Ab ham makaan mein taala lagaane vaale hain

अब हम मकान में ताला लगाने वाले हैं
पता चला हैं की मेहमान आने वाले हैं

Rahat Indori Safar kee had hai vahaan tak kee kuch nishaan rahe

सफ़र की हद है वहां तक की कुछ निशान रहे


सफ़र की हद है वहां तक की कुछ निशान रहे
चले चलो की जहाँ तक ये आसमान  रहे

ये क्या उठाये कदम और आ गयी मंजिल
मज़ा तो तब है के पैरों में कुछ थकान रहे

वो शख्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता हैं
तुम उसको दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे

मुझे ज़मीं की गहराइयों ने दबा लिया
मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे

अब अपने बिच मरासिम नहीं अदावत है
मगर ये बात हमारे ही दरमियाँ रहे

सितारों की फसलें उगा ना सका कोई
मेरी ज़मीं पे कितने ही आसमान रहे

वो एक सवाल है फिर उसका सामना होगा
दुआ करो की सलामत मेरी ज़बान रहे


राहत इन्दौरी 

Rahat Indori Log har mod par ruk – ruk ke sambhalate kyon hai

लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है


लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है
इतना डरते है तो फिर घर से निकलते क्यों है

मैं ना जुगनू हूँ दिया हूँ ना  कोई तारा हूँ
रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं

नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ – आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ तो होता हैं जवानी का संभलने के लिये
और सब लोग यही आकर फिसलते क्यों हैं

राहत इन्दौरी 

Gulzar Poetry Maut too ek kavita hai

मौत तू एक कविता है!

मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको,
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.

-गुलज़ार-

Gulzar Poems Abhee na parda girao, thaharo, ki daastaan aage aur bhee hai

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो , कि दास्तां आगे और भी है!

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं.
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है.
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है.
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर,
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर,
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे,
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!

-गुलज़ार-

Gulzar Poem Mere raushanadaan mein baitha ek qabootar

मेरे रौशनदान में बैठा एक क़बूतर

मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कहीं.
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है.
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन.
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं,
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है.
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो,
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं.
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा,
और नीचे गिर के फौत हुए.
बोले गुटरगूँ...
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें.
आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!


-गुलज़ार-

Gulzar Vakt ko aate na jaate na guzarate dekha

वक्त को आते न जाते न गुज़रते देखा!

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा,
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत,
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है.
शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही,
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था.
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन,
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था.
चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी,
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा,
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली,
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी.
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है.
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर,
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको,
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था.
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल,
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें,
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है.
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा,
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने,
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी.


-गुलज़ार-

Gulzar Poetry Amalataas

अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था,
वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था,
शाखें पंखों की तरह खोले हुए.
एक परिन्दे की तरह,
बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर,
सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको,
और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के,
बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!
आंधी का हाथ पकड़ कर शायद.
उसने कल उड़ने की कोशिश की थी,
औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!


-गुलज़ार-

Gulzar Poems Ik Imaarat

इक इमारत!

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है.
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में.
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी.
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे.
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !



-गुलज़ार-

Gulzar Poem Khuda

ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया.
तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया.
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया.
मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी.


-गुलज़ार-



Thursday, November 29, 2018 11:39 PM

Gulzar Poetry Kitaaben

किताबें!

किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर.
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं.
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

-गुलज़ार-

Gulzar Poems Dekho, aahista chalo!

देखो, आहिस्ता चलो!

देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा,
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना,
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं.
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में,
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो,
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा.

-गुलज़ार-

Gulzar Poem Boliye sureelee boliyaan

बोलिये सुरीली बोलियाँ

बोलिये सुरीली बोलियां,
खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियां.
रात में घोले चाँद की मिश्री,
दिन के ग़म नमकीन लगते हैं.
नमकीन आँखों की नशीली बोलियां,
गूंज रहे हैं डूबते साए.
शाम की खुशबू हाथ ना आए,
गूंजती आँखों की नशीली बोलियां.

-गुलज़ार-

Gulzar Shayari Bahut mushkil se karata hoon,

बहुत मुश्किल से करता हूँ,
तेरी यादों का कारोबार,
मुनाफा कम है,
पर गुज़ारा हो ही जाता है...

-गुलज़ार-

Gulzar Aadatan tum ne kar die vaade


आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहो में बारहा रुक कर
हम ने अपना ही इंतज़ार किया
अब ना मांगेंगे जिंदगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया 

-गुलज़ार-

Poetry by Rabindranath Tagore Mere baadal mein maadal baje

मेरे बादल में मादल बजे

मेघ बादल में मादल बजे, गगन मेंसघन सघन वो बजे ।।
उठ रही कैसी ध्वनि गंभीर, हृदय को हिला-झुला वो बजे ।
डूब अपने में रह-रह बजे ।।
गान में कहीं प्राण में कहीं—
कहींतो गोपन थी यह व्यथा
आज श्यामल बन — छाया बीच
फैलकर कहती अपनी कथा ।
गान में रह-रह वही बजे ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Man mein hai basa vahee madhur mukh

मन में है बसा वही मधुर मुख

मन में है बसा वही मधुर मुख ।
जागूँ या देखूँ मैं सपना, लगे वही अपना ।।
जीवन में भूलूँगा कभी नहीं ।
जानो या जानो न तुम ।।
मन में है बजे सदा वही मधुर बाँसुरी ।
मन में जो बसे तुम ।
बता नहीं पाऊँ ।
इन कातर नयनों में वही रखूँ सनमुख ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by RabindranathTagore O ree, aamr manjaree, O ree, aamr manjaree

ओ री, आम्र मंजरी, ओ री, आम्र मंजरी

ओ री, आम्र मंजरी, ओ री, आम्र मंजरी
क्या हुआ उदास हृदय क्यों झरी ।।
गंध में तुम्हारी धुला मेरा गान
दिशि-दिशि में गूँज उसी की तिरी ।।
डाल-डाल उतरी है पूर्णिमा,
गंध में तुम्हारी, मिली आज चन्द्रिमा ।।
दौड़ रही पागल हो दखिन वातास,
तोड़ रही अर्गला,
इधर गई, उधर गई,
चहुँदिश है वो फिरी ।।


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore O Karabee, O Champa

ओ करबी, ओ चंपा

ओ करबी, ओ चंपा, चंचल हौठीं तेरी डालें ।
किसको है देख लिया तुमने आकाश में जानूँ ना जानूँ ना ।।
किस सुर का नशा हवा घूम रही पागल, ओ चंपा, ओ करबी ।
बजता है नुपुर ये किसका जानूँ ना ।।
क्षण क्षण में चमक चमक उठतीं तुम ।
करती हो रह रह कर ध्यान भला किसका ।।
किसके रंग हुई बेहाल फूल फूल उठती हर डाल ।
किसने है आज किया अदभुत्त ये साज जानूँ ना ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Ore mere bhikhaaree

ओरे मेरे भिखारी ! 

ओरे, ओरे भिखारी, मुझे किया है भिखारी,
और चाहो भला क्या तुम !
ओरे ओरे भिखारी, ओरे मेरे भिखारी,
गान कातर सुनाते हो क्यों ।।
रोज़ दूँगी तुम्हें धन नया ही अरे,
साध पाली थी मन में यही,
सौंप सब कुछ दिया, एक पल में ही तो
पास मेरे बचा कुछ नहीं ।।
तुमको पहनाया मैंने वसन ।
घेर आँचल से तुमको लिया ।।
आस पूरी की मैंने तुम्हारी,
अपने संसार से सब दिया ।।
मेरा मन प्राण यौवन सभी,
देखो मुट्ठी, उसी में तो है ।।
ओरे मेरे भिखारी, ओरे, ओरे भिखारी
हाय चाहो अगर और भी,
कुछ तो दो फिर मुझे और तुम ।।
लौटा जिससे सकूँ उसको
तुमको ही मैं,
            ओ भिखारी ।। 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Jab tumhaare saath mera khel hua karata tha

जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था

मेरा खेल साथ तुम्‍हारे जब होता था
तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था.
तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर
जीवन अशांत बहता जाता था
तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई
ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्‍हारी
हँसकर साथ तुम्‍हारे रही दौड़ती फिरती
उस दिन कितने ही वन-वनांत.

ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान
उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था.
केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण,
सदा नाचता हृदय अशांत.
हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि--
स्‍तब्‍ध आकाश, नीरव शशि-रवि,
तुम्‍हारे चरणों में होकर नत-नयन
एकांत खड़ा है भुवन.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore He sundar aae the tum aaj praat

हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात

हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज
लेकर हाथों में अरुणवर्णी पारिजात.

सोई थी नगरी, पथिक नहीं थे पथ पर,
चले गए अकेले, अपने सोने के रथ पर-
ठिठक कर एक बार मेरे वातायन की ओर
किया था तुमने अपना करुण दृष्‍टिपात.
हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज.

स्‍वप्‍न मेरा किस गंध से हुआ सुवासित,
किस आनंद से कॉंप उठा घर का अँधेरा,
धूल में पड़ी नीरव मेरी वीणा
बज उठी अनाहत, पाकर कौन-सा आघात.

कितनी ही बार सोचा मैंने--उठ पड़ूँ,
आलस त्‍याग पथ पर जा दौड़ूँ,
उठी जब, तब तुम थे चले गए--
अब तो शायद न होगा तुमसे साक्षात्
हे सुंदर, तुम आए थे प्रात: आज.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Prem tumhaara vahan kar sakoon

प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ



वहन कर सकूँ प्रेम तुम्‍हारा
ऐसी सामर्थ्‍य नहीं।

इसीलिए इस संसार में
मेरे-तुम्‍हारे बीच
कृपाकर तुमने रखे नाथ
अनेक व्‍यवधान-
दुख-सुख के अनेक बंधन
धन-जन-मान।
ओट में रहकर क्षण-क्षण
झलक दिखाते ऐसे-
काले मेघों की फॉंको से
रवि मृदुरेखा जैसे।

शक्‍ति जिन्‍हें देते ढोने की
असीम प्रेम का भार
एक बार ही सारे परदे
देते हो उतार।
न रखते उन पर घर के बंधन
न रखते उनके धन
नि:शेष बनाकर पथ पर लाकर
करते उन्‍हें अकिंचन।
न व्‍यापता उन्‍हें मान-अपमान
लज्‍जा-शरम-भय।

अकेले तुम सब कुछ उनके
विश्‍व-भुवनमय।
इसी तरह आमने-सामने
सम्‍मुख तुम्‍हारा रहना,
केवल मात्र तुम्‍हीं में प्राण
परिपूर्ण कर रखना,
यह दया तुम्‍हारी पाई जिसने
उसका लोभ असीम
सकल लोभ वह दूर हटाता
देने को तुमको स्‍थान।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Gaate-Gaate gaan tumhaara

गाते-गाते गान तुम्हारा

जाने कब मैं बाहर निकली गान तुम्‍हारे ही गाते--
यह तो आज की नहीं, हाँ आज की बात नहीं।
भूल गई हूँ जाने कब से चाहत तुम्‍हारी मन में--
यह तो आज की नहीं, हाँ आज की बात नहीं।

झरना जैसे बाहर निकलता
किसकी चाहत नहीं जानता
वैसे ही आई हूँ दौड़ी
जीवनधारा के संग बहती
यह तो आज की नहीं, हाँ आज की बात नहीं।

कितने ही नामों से रही पुकारती
कितनी हीं छवियां रही आँकती
जाने किस आनंद में चलती रही
उसका ठिकाना पाए बिना--
यह तो आज की नहीं,हाँ आज की बात नहीं।

पुष्‍प जैसे प्रकाश के लिए
काटे अबोध जगकर के रात
वैसे ही तुम्‍हारी चाहत में
मेरा हृदय पड़ा है बिछकर
यह तो आज की नहीं,हाँ आज की बात नहीं।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Ek-Ek kar

एक-एक कर

एक-एक कर अपने
खोलो तार पुराने, खोलो तार पुराने
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.

खत्‍म हो गया दिन का मेला
सभा जुड़ेगी संध्‍या बेला
अंतिम सुर जो छेड़ेगा, उसके
आने की यह आ गई बेला--
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.

द्वार खोल दो अपने हे
अंधेरे आकाश के ऊपर से
सात लोकों की नीरवता
आए तुम्‍हारे घर में.

इतने दिनों तक गाया जो गान
आज हो जाए उसका अवसान
यह साज है तुम्‍हारा साज
इस बात को ही दो बिसार
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Maan lee maan gayee main haar

मान ली, मान गयी मैं हार 


मान ली, हार मान गई.
जितना ही तुमको दूर ढकेला
उतनी ही मैं दूर भई.

मेरे चित्‍ताकाश से
तुम्‍हे जो कोई दूर रखे
कैसे भी यह सह्य नहीं
हर बार ही जान गई.

अतीत जीवन की छाया बन
चलता पीछे-पीछे,
अनगिन माया बजाकर वंशी
व्‍यर्थ ही पुकारें मुझे.

सब छूटे, पाकर साथ तुम्‍हारा
अब हाथों में डोर तुम्‍हारे
जो है मेरा इस जीवन में
लेकर आई द्वार तुम्‍हारे.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Sunday, November 25, 2018 9:25 PM

Poetry by Rabindranath Tagore Tum logon ne sunee nahin kya

तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या


तुमने सुनी नहीं क्‍या सुनी नहीं, उसके पैरों की ध्‍वनि
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.

युग-युग में, पल-पल में दिन-रात
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.

गाए हैं गान जब भी जितने
अपनी धुन में पागल होकर
सकल सुरों में गूँजित उसकी ही
आगमनी--
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है. 
युगों-युगों से फागुन-दिन में, वन के पथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.
सावन के अनगिन अंधकार में बादल-रथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.

दुख के बाद, चरम दुख में
उसकी ही पगध्‍वनि आती हिय में
सुख में जाने कब परस कराता
पारसमणि.
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा.

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Vah to tumhaare paas baitha tha

वह तो तुम्हारे पास बैठा था


वह तो तुम्हारे पास आकर बैठा था
तब भी जागी नहीं।
कैसी नींद थी तुम्‍हारी,
हतभागिनी।

आया था नीरव रात में
वीणा थी उसके हाथ में
सपने में ही छेड़ गया
गहन रागिनी।

जगने पर देखा, दक्षिणी हवा
करती हुई पागल
उसकी गंध फैलाती हुई
भर रही अंधकार।

क्‍यों मेरी रात बीती जाती
साथ पाकर भी पास न पाती
क्‍यों उसकी माला का परस
वक्षों को हुआ नहीं।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–

Poetry by Rabindranath Tagore Vishv hai jab neend mein magan

विश्व है जब नींद में मगन


विश्व है जब नींद में मगन
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।

नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।

गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्‍याकुल सुर में।

समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले यह अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–