प्रेमे प्राणे गाने गन्धे आलोके पुलके...


प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में, 
आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को, 
अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है।

दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा-
मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है;
सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है।

शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस, 
हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो;
अपना सारा मधु धरकर तब चरणों पर।

जाग उठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में, 
उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है, 
अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–