मेरे बादल में मादल बजे

मेघ बादल में मादल बजे, गगन मेंसघन सघन वो बजे ।।
उठ रही कैसी ध्वनि गंभीर, हृदय को हिला-झुला वो बजे ।
डूब अपने में रह-रह बजे ।।
गान में कहीं प्राण में कहीं—
कहींतो गोपन थी यह व्यथा
आज श्यामल बन — छाया बीच
फैलकर कहती अपनी कथा ।
गान में रह-रह वही बजे ।।

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–