लेगेछे अमल धवल पाले मन्द मधुर हावा


लगी हवा यों मन्द-मधुर इस
नाव-पाल पर अमल-धवल है;
नहीं कभी देखा है मैंने
किसी नाव का चलना ऐसा।

लाती है किस जलधि-पार से
धन सुदूर का ऐसा, जिससे-
बह जाने को मन होता है;
फेंक डालने को करता जी
तट पर सभी चाहना-पाना !
पीछे छरछर करता है जल, 
गुरु गम्भीर स्वर आता है;
मुख पर अरुण किरण पड़ती है, 
छनकर छिन्न मेघ-छिद्रों से।

कहो, कौन हो तुम ? कांडारी।
किसके हास्य-रुदन का धन है ?
सोच-सोचकर चिन्तित है मन, 
बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ?
मन्त्र कौन-सा गाना होगा ?

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–