मौत तू एक कविता है. मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको, डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो , कि दास्तां आगे और भी है!
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो! अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं अभी तो किरदार ही बुझे हैं. अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के अभी तो एहसास जी रहा है. यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है. यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर, यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर, कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे, अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कहीं. शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना उनको नावाजिब लगता है. उनका घर है रौशनदान में और मैं एक पड़ोसी हूँ उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन. हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं, उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है. आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो, बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं. हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा, और नीचे गिर के फौत हुए. बोले गुटरगूँ... कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें. आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!
वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा, न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत, जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है. शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही, और जब आया ख़्यालों को एहसास न था. आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन, मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था. चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी, दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा, बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली, लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी. मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है. पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर, लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको, बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था. चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल, और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें, मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है. वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा, जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने, इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी.
खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था, वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था, शाखें पंखों की तरह खोले हुए. एक परिन्दे की तरह, बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर, सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको, और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के, बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के! आंधी का हाथ पकड़ कर शायद. उसने कल उड़ने की कोशिश की थी, औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!
इक इमारत है सराय शायद, जो मेरे सर में बसी है. सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक, बजती है सर में. कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ, सुनता हूँ कभी. साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक, उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं चमगादड़ें जैसे. इक महल है शायद ! साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में कोई खोल के आँखें, पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को ! चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में, खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं ! और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ ! एक, मिट्टी का घर है इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से, बड़ी हसरत से तकती हैं. महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं, जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं. अब अक्सर ....... गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर. बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें .... इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है बड़ी हसरत से तकती हैं, जो क़दरें वो सुनाती थीं, कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे, वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में, जो रिश्ते वो सुनाती थीं. वह सारे उधड़े-उधड़े हैं, कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है, कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं. बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़, जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते, बहुत-सी इस्तलाहें हैं, जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं, गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला. ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का, अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक, झपकी गुज़रती है, बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर, किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है. कभी सीने पे रख के लेट जाते थे, कभी गोदी में लेते थे, कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर. नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से, वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी. मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल, और महके हुए रुक्क़े, किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे, उनका क्या होगा ? वो शायद अब नहीं होंगे !
देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा, देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना, ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं. काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में, ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो, जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा.
बोलिये सुरीली बोलियां, खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियां. रात में घोले चाँद की मिश्री, दिन के ग़म नमकीन लगते हैं. नमकीन आँखों की नशीली बोलियां, गूंज रहे हैं डूबते साए. शाम की खुशबू हाथ ना आए, गूंजती आँखों की नशीली बोलियां.
मेघ बादल में मादल बजे, गगन मेंसघन सघन वो बजे ।। उठ रही कैसी ध्वनि गंभीर, हृदय को हिला-झुला वो बजे । डूब अपने में रह-रह बजे ।। गान में कहीं प्राण में कहीं— कहींतो गोपन थी यह व्यथा आज श्यामल बन — छाया बीच फैलकर कहती अपनी कथा । गान में रह-रह वही बजे ।।
मन में है बसा वही मधुर मुख । जागूँ या देखूँ मैं सपना, लगे वही अपना ।। जीवन में भूलूँगा कभी नहीं । जानो या जानो न तुम ।। मन में है बजे सदा वही मधुर बाँसुरी । मन में जो बसे तुम । बता नहीं पाऊँ । इन कातर नयनों में वही रखूँ सनमुख ।।
ओ री, आम्र मंजरी, ओ री, आम्र मंजरी क्या हुआ उदास हृदय क्यों झरी ।। गंध में तुम्हारी धुला मेरा गान दिशि-दिशि में गूँज उसी की तिरी ।। डाल-डाल उतरी है पूर्णिमा, गंध में तुम्हारी, मिली आज चन्द्रिमा ।। दौड़ रही पागल हो दखिन वातास, तोड़ रही अर्गला, इधर गई, उधर गई, चहुँदिश है वो फिरी ।।
ओ करबी, ओ चंपा, चंचल हौठीं तेरी डालें । किसको है देख लिया तुमने आकाश में जानूँ ना जानूँ ना ।। किस सुर का नशा हवा घूम रही पागल, ओ चंपा, ओ करबी । बजता है नुपुर ये किसका जानूँ ना ।। क्षण क्षण में चमक चमक उठतीं तुम । करती हो रह रह कर ध्यान भला किसका ।। किसके रंग हुई बेहाल फूल फूल उठती हर डाल । किसने है आज किया अदभुत्त ये साज जानूँ ना ।।
ओरे, ओरे भिखारी, मुझे किया है भिखारी, और चाहो भला क्या तुम ! ओरे ओरे भिखारी, ओरे मेरे भिखारी, गान कातर सुनाते हो क्यों ।। रोज़ दूँगी तुम्हें धन नया ही अरे, साध पाली थी मन में यही, सौंप सब कुछ दिया, एक पल में ही तो पास मेरे बचा कुछ नहीं ।। तुमको पहनाया मैंने वसन । घेर आँचल से तुमको लिया ।। आस पूरी की मैंने तुम्हारी, अपने संसार से सब दिया ।। मेरा मन प्राण यौवन सभी, देखो मुट्ठी, उसी में तो है ।। ओरे मेरे भिखारी, ओरे, ओरे भिखारी हाय चाहो अगर और भी, कुछ तो दो फिर मुझे और तुम ।। लौटा जिससे सकूँ उसको तुमको ही मैं, ओ भिखारी ।।
मेरा खेल साथ तुम्हारे जब होता था तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था. तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर जीवन अशांत बहता जाता था तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्हारी हँसकर साथ तुम्हारे रही दौड़ती फिरती उस दिन कितने ही वन-वनांत.
ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था. केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण, सदा नाचता हृदय अशांत. हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि-- स्तब्ध आकाश, नीरव शशि-रवि, तुम्हारे चरणों में होकर नत-नयन एकांत खड़ा है भुवन.
तुमने सुनी नहीं क्या सुनी नहीं, उसके पैरों की ध्वनि वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.
युग-युग में, पल-पल में दिन-रात वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.
गाए हैं गान जब भी जितने अपनी धुन में पागल होकर सकल सुरों में गूँजित उसकी ही आगमनी-- वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है. युगों-युगों से फागुन-दिन में, वन के पथ पर वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है. सावन के अनगिन अंधकार में बादल-रथ पर वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है.
दुख के बाद, चरम दुख में उसकी ही पगध्वनि आती हिय में सुख में जाने कब परस कराता पारसमणि. वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा.