दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं 
सब अपने चेहरों पे दोहरी नक़ाब रखते हैं 

हमें चराग़ समझ कर बुझा न पाओगे 
हम अपने घर में कई आफ़्ताब रखते हैं 

बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आशना भी नहीं 
इसी में ख़ुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं 

ये मय-कदा है वो मस्जिद है वो है बुत-ख़ाना 
कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं 

हमारे शहर के मंज़र न देख पाएँगे 
यहाँ के लोग तो आँखों में ख़्वाब रखते हैं