परवासी, आ जाओ घर
परवासी, आ जाओ घर
नैय्या को मोड़ लो इधर ।।
देखो तो कितनी ही बार
नौका है नाविक की हुई आर-पार ।।
मांझी के गीत उठे अंबर पुकार ।
गगन गगन आयोजन
पवन पवन आमंत्रण ।।
मिला नहीं उत्तर पर,
मन ने हैं खोले ना द्वार ।।
हुए तभी गृहत्यागी,
निर्वासित कर डाले अंतर-बाहर ।।
–रबिन्द्रनाथ टैगोर–
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