मैंने पाया उसे बार-बार
मैंने पाया उसे बार-बार ।
उस अचीन्हे को चीन्हे में चीन्हा ।।
जिसे देखा उसी में कहीं
वंशी बजती अदेखे की ही ।।
जो है मन के बहुत पास में,
चल पड़ा उसके अभिसार में ।।
कैसे चुप-चुप रहा है वो खेल,
रूप कितने ही धारे अरूप ।।
दूर से उठ रहा किसका सुर,
कानों कानों कथा कह मधुर ।।
आँखों आँखों का वो देखना,
लिए जाता मुझे किस पार !!
–रबिन्द्रनाथ टैगोर–
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