विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे!


उद्वेलित हुआ गगन, मगन हुए गत आगत
उज्ज्वल आलोक में झूमा जीवन चंचल ।
कैसी तरंग रे !
दोलित दिनकर — तारे — चंद्र रे !
काँपी फिर चमक उठी चेतना,
नाचे आकुल चंचल नाचे कुल ये जगत,
कूजे हृदय विहंग ।
विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे !! 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–