बह रही आनन्दधारा भुवन में,
बह रही आनन्दधारा भुवन में,
रात-दिन अमृत छलकता गगन में ।।
दान करते रवि-शशि भर अंजुरी,
ज्योति जलती नित्य जीवन-किरण में ।।
क्यों भला फिर सिमट अपने आप में
बंद यों बैठे किसी परिताप में ।।
क्षुद्र दुःख सब तुच्छ, बंदी क्यों बनें,
प्रेम में ही हों हृदय अपने सने ।।
हृदय को बस प्रेम की रस-धार दो ।
दिशाओं में उसे ख़ूब प्रसार दो ।।
–रबिन्द्रनाथ टैगोर–
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