हे नवीना
हे नवीना,
प्रतिदिन के पथ की ये धूल
उसमें ही छिप जाती ना !
उठूँ अरे, जागूँ जब देखूँ ये बस,
स्वर्णिम-से मेघ वहीं तुम भी हो ना ।।
स्वप्नों में आती हो, कौतुक जगाती ।
किन अलका फूलों को केशों सजाती
किस सुर में कैसी बजाती ये बीना ।।
प्रतिदिन के पथ की ये धूल
उसमें ही छिप जाती ना !
उठूँ अरे, जागूँ जब देखूँ ये बस,
स्वर्णिम-से मेघ वहीं तुम भी हो ना ।।
स्वप्नों में आती हो, कौतुक जगाती ।
किन अलका फूलों को केशों सजाती
किस सुर में कैसी बजाती ये बीना ।।
–रबिन्द्रनाथ टैगोर–
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