यह कौन विरहणी आती

यह कौन विरहणी आती !
केशों को कुछ छितराती ।
वह म्लान नयन दर्शाती ।।
लो आती वह निशि-भोर ।
देती है मुझे झिंझोर ।।
वह चौंका मुझको जाती ।
प्रातः सपनों में आती।
वह मदिर मधुर शयनों में,
कैसी मिठास भर जाती ।।
वह यहाँ कुसुम-कानन में,
है सौंप वासना जाती ।। 

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–