सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन 

सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन ।
रंग-रंग के मेरे वे दिन ।।
सह न सके हँसी-रुदन ना कोई बँधन ।
थी मुझको आशा— सीखेंगे वो प्राणों की भाषा ।।
उड़ वे तो गए कही नही सकल कथा ।
कितने ही रंगों के मेरे वे दिन ।।
देखूँ ये सपना टूटा जो पिंजरा वे उसको घेर ।
घूम रहे हैं लो चारों ओर ।
रंग भरे मेरे वे दिन ।
इतनी जो वेदना हुई क्या वृथा !
क्या हैं वे सब छाया-पाखि !
कुछ भी ना हुआ वहाँ क्या नभ के पार,
कुछ भी वहन !!


–रबिन्द्रनाथ टैगोर–