चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,


चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना,
काँटा वो प्रेम का—
छाती में बींध उसे रखना ।
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं
अब तक उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे, जिसकी सब बींधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !!

–रबिन्द्रनाथ टैगोर–